एक उम्र होती है इच्छाओं को जीने की और वही उम्र हो

"एक उम्र होती है इच्छाओं को जीने की और वही उम्र हो जाती है इच्छाओं को मारने की इच्छाएं ही उम्र घटाती है इच्छाएं ही उम्र बढाती है इच्छाओं को मारकर ही तुम बड़े लगने लगते हो और इच्छाएं भी वो जो उस उम्र की होती है। ये उम्र की इच्छाएं ही है जो हमारी भूख बढाती है हर रोज लगता है कि आज थोड़ा खुल के जियेंगे तबज्जो देगे इच्छाओं को,थोड़ा समय खराब करके लेकिन सामने पड़ा आँखे दिखाता काम मौका नही देता। जैसे शेर के सामने हतप्रभ सा खड़ा बकरी का बच्चा हर दिन इच्छाओं को मारकर जीते है नई इच्छाओं के लिए और दिनो दिन समझाते जाते है खुद को कि शायद यही ज़िन्दगी है,त्याग और तपस्या की भूखी जबसे होश संभाला है तबसे ये होश ही नही कि आखिरी बार होश-ओ-हवास में कब थे काश ये होश ही न आता बने रहते उसी बचपने में जहाँ यही न पता था कि इच्छाएं क्या होती ©Saurabh Yadav"

 एक उम्र होती है इच्छाओं को जीने की
और वही उम्र हो जाती है इच्छाओं को मारने की 
इच्छाएं ही उम्र घटाती है 
इच्छाएं ही उम्र बढाती है
इच्छाओं को मारकर ही तुम बड़े लगने लगते हो
और इच्छाएं भी वो जो उस उम्र की होती है।
ये उम्र की इच्छाएं ही है जो हमारी भूख बढाती है 

हर रोज लगता है कि आज थोड़ा खुल के जियेंगे
तबज्जो देगे इच्छाओं को,थोड़ा समय खराब करके
लेकिन सामने पड़ा आँखे दिखाता काम मौका नही देता।
जैसे शेर के सामने हतप्रभ सा खड़ा बकरी का बच्चा
हर दिन इच्छाओं को मारकर जीते है नई इच्छाओं के लिए
और दिनो दिन समझाते जाते है खुद को 
कि शायद यही ज़िन्दगी है,त्याग और तपस्या की भूखी
जबसे होश संभाला है तबसे ये होश ही नही
 कि आखिरी बार होश-ओ-हवास में कब थे
काश ये होश ही न आता बने रहते उसी बचपने में
 जहाँ यही न पता था कि इच्छाएं क्या होती

©Saurabh Yadav

एक उम्र होती है इच्छाओं को जीने की और वही उम्र हो जाती है इच्छाओं को मारने की इच्छाएं ही उम्र घटाती है इच्छाएं ही उम्र बढाती है इच्छाओं को मारकर ही तुम बड़े लगने लगते हो और इच्छाएं भी वो जो उस उम्र की होती है। ये उम्र की इच्छाएं ही है जो हमारी भूख बढाती है हर रोज लगता है कि आज थोड़ा खुल के जियेंगे तबज्जो देगे इच्छाओं को,थोड़ा समय खराब करके लेकिन सामने पड़ा आँखे दिखाता काम मौका नही देता। जैसे शेर के सामने हतप्रभ सा खड़ा बकरी का बच्चा हर दिन इच्छाओं को मारकर जीते है नई इच्छाओं के लिए और दिनो दिन समझाते जाते है खुद को कि शायद यही ज़िन्दगी है,त्याग और तपस्या की भूखी जबसे होश संभाला है तबसे ये होश ही नही कि आखिरी बार होश-ओ-हवास में कब थे काश ये होश ही न आता बने रहते उसी बचपने में जहाँ यही न पता था कि इच्छाएं क्या होती ©Saurabh Yadav

कविता। poetry

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