हाथ में मसाल लिए ही आदमी निकलता होगा, क्या इसी लौ | हिंदी कविता

"हाथ में मसाल लिए ही आदमी निकलता होगा, क्या इसी लौ से इसका दिल भी पिघलता होगा? मारा जाता है हर तरफ से इसका ढलता शरीर, क्या इसी असर के लिए ये कोख़ से निकलता होगा? क्या ये जरूरी नहीं की उसके घर से उसका बच्चा सीखे, वो उसी तालीम से ज़िन्दगी को परखता होगा, पर चाकू इस नुक्कड़ में है, ज़हर फैला है उस गली में, क्या इसी डर से वो बच्चों को पकड़ता होगा? -ओम"

 हाथ में मसाल लिए ही आदमी निकलता होगा,
 क्या इसी लौ से इसका दिल भी पिघलता होगा?
 मारा जाता है हर तरफ से इसका ढलता शरीर,
 क्या इसी असर के लिए ये कोख़ से निकलता होगा?
क्या ये जरूरी नहीं की उसके घर से उसका बच्चा सीखे,
वो उसी तालीम से ज़िन्दगी को परखता होगा, पर 
चाकू इस नुक्कड़ में है, ज़हर फैला है उस गली में,
क्या इसी डर से वो बच्चों को पकड़ता होगा?
-ओम

हाथ में मसाल लिए ही आदमी निकलता होगा, क्या इसी लौ से इसका दिल भी पिघलता होगा? मारा जाता है हर तरफ से इसका ढलता शरीर, क्या इसी असर के लिए ये कोख़ से निकलता होगा? क्या ये जरूरी नहीं की उसके घर से उसका बच्चा सीखे, वो उसी तालीम से ज़िन्दगी को परखता होगा, पर चाकू इस नुक्कड़ में है, ज़हर फैला है उस गली में, क्या इसी डर से वो बच्चों को पकड़ता होगा? -ओम

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