तन के रोग सारे, मन के रोष सारे। जो हों अवरोष सारे, | हिंदी कविता

"तन के रोग सारे, मन के रोष सारे। जो हों अवरोष सारे, जगत के दोष सारे। दहन हों होलिका में सब। गहरी टीस हो मनकी,बहती आंख के गम भी। दुखद दुविधाएं किस्मत की, गहन अज्ञान के तम भी। दहन हों होलिका में सब। सकल संसार के संकट,बहती खौफ की आहट। मिटती प्रेम की रौनक, दिलों की सारी कड़वाहट। दहन हों होलिका में सब। अपनों से गिले शिकवे, पल पल टूटते रिश्ते। मिथ्या अहम ये मन के, द्वेष आपस में जो पलते। दहन हों होलिका में सब। ©रिंकी कमल रघुवंशी "सुरभि""

 तन के रोग सारे, मन के रोष सारे।
जो हों अवरोष सारे, जगत के दोष सारे।
दहन हों होलिका में सब।
गहरी टीस हो मनकी,बहती आंख के गम भी।
दुखद दुविधाएं किस्मत की, गहन अज्ञान के तम भी।
दहन हों होलिका में सब।
सकल संसार के संकट,बहती खौफ की आहट।
मिटती प्रेम की रौनक, दिलों की सारी कड़वाहट।
दहन हों होलिका में सब।
अपनों से गिले शिकवे, पल पल टूटते रिश्ते।
मिथ्या अहम ये मन के, द्वेष आपस में जो पलते।
दहन हों होलिका में सब।

©रिंकी कमल रघुवंशी "सुरभि"

तन के रोग सारे, मन के रोष सारे। जो हों अवरोष सारे, जगत के दोष सारे। दहन हों होलिका में सब। गहरी टीस हो मनकी,बहती आंख के गम भी। दुखद दुविधाएं किस्मत की, गहन अज्ञान के तम भी। दहन हों होलिका में सब। सकल संसार के संकट,बहती खौफ की आहट। मिटती प्रेम की रौनक, दिलों की सारी कड़वाहट। दहन हों होलिका में सब। अपनों से गिले शिकवे, पल पल टूटते रिश्ते। मिथ्या अहम ये मन के, द्वेष आपस में जो पलते। दहन हों होलिका में सब। ©रिंकी कमल रघुवंशी "सुरभि"

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