मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए
जोश-ए-क़दह से, बज़्म चराग़ां किये हुए
माँगे है फिर, किसी को लब-ए-बाम पर, हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ प परीशाँ किये हुए
जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
ग़ालिब, हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्य-ए-तूफ़ाँ किये हुए
-मिर्ज़ा ग़ालिब
©¶ Sagar
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