निकलता हूं घर से रातों में कि समेट लूंगा चांदनी बा

"निकलता हूं घर से रातों में कि समेट लूंगा चांदनी बात अलग है कि हाथ मेरे अंधेरे भी नहीं लगते। उजाले में जब नज़रे साथ देने को है राजी तब कमबख्त कदम कहते है कि हम नहीं चलते।"

 निकलता हूं घर से रातों में कि समेट लूंगा चांदनी
बात अलग है कि हाथ मेरे अंधेरे भी नहीं लगते।
उजाले में जब नज़रे साथ देने को है राजी तब कमबख्त कदम कहते है कि हम नहीं चलते।

निकलता हूं घर से रातों में कि समेट लूंगा चांदनी बात अलग है कि हाथ मेरे अंधेरे भी नहीं लगते। उजाले में जब नज़रे साथ देने को है राजी तब कमबख्त कदम कहते है कि हम नहीं चलते।

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