एक चाह बनी थी उड़ने की
नभ में विचरण करने की
तभी समय का तूफां आया
बिना पंख का मुझे उड़ाया
अति उत्साह मन भी मेरा
आसमां को ही घर समझाया
हर रोज वहां महफिल लगती
हर रोज वहां अप्सराएं आती
पराए भी अपने लोग बताते
पर अपने मुझसे मुंह छुपाते
बात जब तक समझ में आती
मन से होकर दिमाग में जाती
तब ही समय ने करवट ली
आ कर धराम गिराया जमीं पे
अपने दौड़े और मुझे संभाले
बड़े प्यार से, फिर उन्होंने पाले
अब बस चाह यही है रहने की
धरा पे ही भ्रमण करने की
©कुन्दन मिश्रा
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