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आक्षेप
तुम फूल बनी पर ना महकी,
भँवरा बन मैं जलता रहता।
उड़ता फिरता पगला मन सा
विरहा मनमें ढ़लता रहता।
तुमने कबहुँ अपना समझा,
सँग में रह क्या हम भी मरते?
हमने तुमको सपना समझा,
जलता हिय लेकर क्या करते?
पगला मन था पगली बतियाँ,
गुजरी कितनी दुखती रतियाँ।
विरहा मन की झरती पतियाँ,
बहती रहती दुख की नदियां।
खुद से खुद को कहते रहते ,
जल से नयना बहते रहते।
हम क्यों इतना सहते रहते,
कुछ तो तुम भी हमको कहते।
#सैनिबाबू
©सैनीबाबू
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