कितनी बार पैर ठिठके हैं,
कितनी बार रुकी बोली।
अन्तस् में सब कह डाला पर,
नहीं ज़ुबाँ फिर भी खोली।।
हँसी-ठिठोली, नादां हरक़तें,
अब सब, एक ज़माना है।
जो अपना था, चला गया,
अब 'रिश्ता' महज़ बहाना है।।
एक दौर था, जब हक़ 'लगता' था,
इक दौर है, जब हक़ 'डरता' है।
एक दौर था, जब सब 'अपना' था,
इक दौर है, जब सब 'सपना' है।।
अब दीवारें ही कहती हैं,
कुछ और वक़्त, ज़रा रुक जाओ।
कुछ बातें बचपन की, कर लो,
कुछ यादें, फ़िर खुल कर जी लो।
मैं भी जानूँ, तू भी जाने,
यह साथ, यहीं तक चलना था।
फिर एक पहर ही दोनों को,
दोनों से, यूँ ही बिछड़ना था।।
है दुआ मेरी, आबाद रहो,
बस इतना ही, अब कहना है।
यह विरह वेदना शाश्वत है,
हम दोनों को, यह सहना है।।
©सुमंगल
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