हर वक्त मिलती रहती है मुझे,
अंजानी सी सज़ा..
मैं तक़दीर से कैसे पूछूँ,
मेरा कसूर क्या है?
कभी खुशियों के दरवाज़े पर खड़ी,
मैं इंतज़ार करती हूँ..
मगर हर बार हाथों में सिर्फ,
दर्द का पैग़ाम मिलता है..
न जाने कौन सा गुनाह है,
जो मैंने किया नहीं..
फिर भी ये ज़िन्दगी हर कदम पर,
मुझसे हिसाब मांगती है..।
तूफानों से लड़ते-लड़ते अब तो,
साँसें भी थम सी गई हैं..,
पर ये तक़दीर है, जो
हर बार मुझे गिरा देती है..,
मैंने तो बस अपने सपनों के पीछे,
भागी थी..,
फिर क्यों हर मंजिल पर,
हार का सामना मुझे मिलता है..?
राहें जो कभी चमकती थीं उम्मीदों से,
अब अंधेरों में बदल चुकी हैं..
मुझे समझ नहीं आता,
किससे कहूँ अपना दर्द..,
क्योंकि तक़दीर के सवालों का,
कोई जवाब नहीं है मेरे पास..।
मैंने तो बस चाहा था थोड़ा सा सुकून,
पर ये ज़िन्दगी है..,
जो हर वक्त सज़ा बन कर मिलती है,
मैं तक़दीर से कैसे पूछूँ,
कि मेरा कसूर आखिर क्या है..?
©silent_03
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