लफ्जों की मेरी किसी किताब ने गुम हो तुम आज भी बिलकुल मानसून के बादल की ओट में छिपे उस चांद तरह, जो हाजिर तो है,पर जाहिर नहीं;फिक्र तो है आज भी हर जगह, पर जिक्र.
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