सन्नाटा...
उतरा हूँ आज पुनः सन्नाटे में,
चहुँ ओर छाए अंधेरे में कहीं
किन्तु लौट पाया हूँ।
तमाम दीवारों को फलांग कर...
जहां सिर्फ़ में हूँ,
और सिर्फ़ मैं ही हूँ...
मेरी वो कुछ आदतें,
कुछ पुरानी बातें...
पूर्ण रूप से सक्षम हैं।
इस सन्नाटे को देख मुस्कुराने में...
मेरा व्यथित मन,
कलुषित हृदय क्यों व्याकुल था?
चकाचौंध से भरे उस ठौर पर,
जहां पनप उठते हैं हर रोज़
अनेक प्रश्न!
जिनके उत्तर... मेरा हृदय
कभी खोज नहीं पाता...
किन्तु! मुझे भा रहा है,
मेरे मन में पसरा हुआ सन्नाटा...
क्यों कि? रहना है मुझे,
सन्नाटे की दीवारों के भीतर।
अतः स्वीकारा है मैंने इसे,
मेरे अंतर्मन से...
✍️ धर्मेन्द्र सिंह "धर्मा"
©Dharmendra Singh "Dharma"
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