ग़ज़ल
धूप में ही अक्सर खिलता हूँ
मैं आँसू का इक क़तरा हूँ
उसके बिस्तर तक पहुँचा हूँ
जबसे इक अफ़वाह बना हूँ
बूँद-बूँद खुद ही टूटा हूँ
जब भी पत्थर पर बरसा हूँ
तुमसे बिछड़कर लम्हा-लम्हा
उम्र क़ैद सा मैं गुजरा हूँ
तुम तो बस मशहूर हुये हो
गली-गली तो मैं रुसवा हूँ
भीड़ में हूँ तो क्या जानो तुम
आख़िर मैं कितना तनहा हूँ
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'
©Dharmendra Azad