ज़ख़्म ताज़े थे, तो दर्द भी मीठा था, ज़ख़्म जो निशां बन | हिंदी शायरी

"ज़ख़्म ताज़े थे, तो दर्द भी मीठा था, ज़ख़्म जो निशां बने, तो दर्द निशां खो बैठा। भूक जब मासूम थी, तो हम सोने की चिड़िया थे, भूक जो गुमराह हुई, मैं नफ़रत के बीज बो बैठा। रविकुमार ©Ravi Kumar Panchwal"

 ज़ख़्म ताज़े थे, तो दर्द भी मीठा था,
ज़ख़्म जो निशां बने, तो दर्द निशां खो बैठा।
भूक जब मासूम थी, तो हम सोने की चिड़िया थे,
भूक जो गुमराह हुई, मैं नफ़रत के बीज बो बैठा।
रविकुमार

©Ravi Kumar Panchwal

ज़ख़्म ताज़े थे, तो दर्द भी मीठा था, ज़ख़्म जो निशां बने, तो दर्द निशां खो बैठा। भूक जब मासूम थी, तो हम सोने की चिड़िया थे, भूक जो गुमराह हुई, मैं नफ़रत के बीज बो बैठा। रविकुमार ©Ravi Kumar Panchwal

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