रात के लगभग ढाई बज रहे थे | शून्य बटे सन्नाटे में

"रात के लगभग ढाई बज रहे थे | शून्य बटे सन्नाटे में घड़ी की टिक टिक की ध्वनि गूंज रही थी और एक ये नींद जो आने का नाम ही नहीं ले रही थी | बात पिछले महीने वसंत के मौसम की है | मैं और मां राम शरणम् आश्रम में ठहरे हुए थे | बचपन में यहां कभी कभी आना हो जाया करता था मगर इस दफा हफ्ते के लिए ठहरना मेरे लिए नवीन था | यहां की शांति और वातावरण मन मोह लेता है, मानो स्वर्ग सा महसूस करा देता है | नींद ना आने के कारण मैं स्थानीय कक्ष के बरामदे मैं फोन लिए टहलने लगी तो तभी अचानक फोन की टॉर्च की रोशनी में देखा की एक दरवाजा आधा खुला था, जबकि अन्य सारे बंद थे | अंदर जाने पर ज्ञात हुआ कि एक उम्रदराज औरत जाप कर रही थी | कमरे में अन्य और कोई ना था | मैंने आराम से दरवाजा बंद करना चाहा कि एक लड़खड़ाती आवाज सुनाई पड़ी "कौन , कौन है?" | मैंने उन्हें दादी जी कहकर संबोधित किया और कहा नींद नहीं आ रही थी, सो थोड़ा टहलने लगी | माफी चाहती हूं आपका ध्यान भंग करने के लिए |उन्होंने बड़ी ही विनम्र ध्वनि में जवाब दिया, "कोई बात नहीं बेटा ,यह तो दिन रात का काम है ,आओ बैठो तो जरा" | टॉर्च की रोशनी में मेरे चेहरे को देख कर प्यारे स्वर में वह बोली ,तुम बिल्कुल मेरी पोती जैसी दिखती हो | यहां से शुरू होकर एक के बाद एक नए किस्से , मानो उनकी एक लंबी कतार जो वह अपने जहन में जाने कितने वक्त से संजोए बैठी थी | किस्से थे ,आज के ,कल के, बीते ज़माने के | इसी बीच मैंने उनसे एक प्रश्न किया ,दादी जी मृत्यु कितनी डरावनी होती है ना ? कैसे हर कोई खुद को मौत से निगल ना लेने की जद्दोजहद में लगा है | कोई किसी भी उम्र के पड़ाव में क्यों ना पहुंच जाए ,मगर कहता है , अभी मेरी उम्र ही क्या है भला? , मैंने हाथों से इशारा करते हुए कहा | दादी जी हंस पड़ी और बोली-मौत की कला जीने की कला का ही विस्तार है | जीवन से विदाई भी खुशी के चारों ओर ध्वनि और उत्साह के बीच होनी चाहिए | एक साहसी यात्री के तौर पर अंतिम सीमा का अनुभव करना चाहिए | उस पार कुछ नया होगा इसका पता लगाने में बेसब्र होना चाहिए ना की मृत्यु से डरा जाए | मृत्यु को बताएं ,सौम्या अंदाज में, थोड़ा इंतजार कर ,मैं अपना तकिया ठीक कर लू और गर्माहट की रजाई में घुस जाऊं क्योंकि मैं अंतिम मंजिल से पहले अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा हूं | सबके बीच से बाहर जाने में आनंद है| आग ,मिट्टी, पानी, हवा और अंतरिक्ष से मिलन का अनोखा आनंद ,जो लंबे समय से तुम्हारी प्रतीक्षा में थे | मेरा मुंह खुला देख वह मुस्कुराई और बोली ,तो मौत से डरो नहीं, उसे बेहिसाब उत्सव से गले लगाओ, जिस उत्सव से जीवन को लगाया है | सच में मेरे रोंगटे खड़े हो गए | मौत के प्रति उनका ऐसा नजरिया मुझे चौंका गया | ©Drishti Nagpal"

 रात के लगभग ढाई बज रहे थे | शून्य बटे सन्नाटे में घड़ी की टिक टिक की ध्वनि गूंज रही थी और एक ये नींद जो आने का नाम ही नहीं ले रही थी | बात पिछले महीने वसंत के मौसम की है | मैं और मां राम शरणम् आश्रम में ठहरे हुए थे | बचपन में यहां कभी कभी आना हो जाया करता था मगर इस दफा हफ्ते के लिए ठहरना मेरे लिए नवीन था | यहां की शांति और वातावरण मन मोह लेता है, मानो स्वर्ग सा महसूस करा देता है | नींद ना आने के कारण मैं स्थानीय कक्ष के बरामदे मैं फोन लिए टहलने लगी तो तभी अचानक फोन की टॉर्च की रोशनी में देखा की एक दरवाजा आधा खुला था, जबकि अन्य सारे बंद थे | अंदर जाने पर ज्ञात हुआ कि एक उम्रदराज औरत जाप कर रही थी | कमरे में अन्य और कोई ना था | मैंने आराम से दरवाजा बंद करना चाहा कि एक लड़खड़ाती  आवाज सुनाई पड़ी  "कौन , कौन है?" | मैंने उन्हें दादी जी कहकर संबोधित किया और कहा नींद नहीं आ रही थी, सो थोड़ा टहलने लगी | माफी चाहती हूं आपका ध्यान भंग करने के लिए |उन्होंने बड़ी ही विनम्र ध्वनि में जवाब दिया, "कोई बात नहीं बेटा ,यह तो दिन रात का काम है ,आओ बैठो तो जरा" | टॉर्च की रोशनी में मेरे चेहरे को देख कर प्यारे स्वर में वह बोली ,तुम बिल्कुल मेरी पोती जैसी दिखती हो | यहां से शुरू होकर एक के बाद एक नए किस्से , मानो उनकी एक लंबी कतार जो वह अपने जहन में  जाने कितने वक्त से संजोए बैठी थी | किस्से थे ,आज के ,कल के, बीते ज़माने के | इसी बीच मैंने उनसे एक प्रश्न किया ,दादी जी मृत्यु कितनी डरावनी होती है ना ? कैसे हर कोई खुद को मौत से निगल ना लेने की जद्दोजहद में लगा है | कोई किसी भी उम्र के पड़ाव में क्यों ना पहुंच जाए ,मगर कहता है , अभी मेरी उम्र ही क्या है भला? , मैंने हाथों से इशारा करते हुए कहा | दादी जी हंस पड़ी और बोली-मौत की कला जीने की कला का ही विस्तार है | जीवन से विदाई भी खुशी के चारों ओर ध्वनि और उत्साह के बीच होनी चाहिए |  एक साहसी यात्री के तौर पर अंतिम सीमा का अनुभव करना चाहिए | उस पार कुछ नया होगा इसका पता लगाने में बेसब्र होना चाहिए ना की मृत्यु से डरा जाए | मृत्यु को बताएं ,सौम्या अंदाज में, थोड़ा इंतजार कर ,मैं अपना तकिया ठीक कर लू और गर्माहट की रजाई में घुस जाऊं क्योंकि मैं अंतिम मंजिल से पहले अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा हूं | सबके बीच से बाहर जाने में आनंद है| आग ,मिट्टी, पानी, हवा और अंतरिक्ष से मिलन का अनोखा आनंद ,जो लंबे समय से तुम्हारी प्रतीक्षा में थे | मेरा मुंह खुला देख वह मुस्कुराई और बोली ,तो मौत से डरो नहीं, उसे बेहिसाब उत्सव से गले लगाओ, जिस उत्सव से जीवन को लगाया है | सच में मेरे रोंगटे खड़े हो गए | मौत के प्रति उनका ऐसा नजरिया मुझे चौंका गया |

©Drishti Nagpal

रात के लगभग ढाई बज रहे थे | शून्य बटे सन्नाटे में घड़ी की टिक टिक की ध्वनि गूंज रही थी और एक ये नींद जो आने का नाम ही नहीं ले रही थी | बात पिछले महीने वसंत के मौसम की है | मैं और मां राम शरणम् आश्रम में ठहरे हुए थे | बचपन में यहां कभी कभी आना हो जाया करता था मगर इस दफा हफ्ते के लिए ठहरना मेरे लिए नवीन था | यहां की शांति और वातावरण मन मोह लेता है, मानो स्वर्ग सा महसूस करा देता है | नींद ना आने के कारण मैं स्थानीय कक्ष के बरामदे मैं फोन लिए टहलने लगी तो तभी अचानक फोन की टॉर्च की रोशनी में देखा की एक दरवाजा आधा खुला था, जबकि अन्य सारे बंद थे | अंदर जाने पर ज्ञात हुआ कि एक उम्रदराज औरत जाप कर रही थी | कमरे में अन्य और कोई ना था | मैंने आराम से दरवाजा बंद करना चाहा कि एक लड़खड़ाती आवाज सुनाई पड़ी "कौन , कौन है?" | मैंने उन्हें दादी जी कहकर संबोधित किया और कहा नींद नहीं आ रही थी, सो थोड़ा टहलने लगी | माफी चाहती हूं आपका ध्यान भंग करने के लिए |उन्होंने बड़ी ही विनम्र ध्वनि में जवाब दिया, "कोई बात नहीं बेटा ,यह तो दिन रात का काम है ,आओ बैठो तो जरा" | टॉर्च की रोशनी में मेरे चेहरे को देख कर प्यारे स्वर में वह बोली ,तुम बिल्कुल मेरी पोती जैसी दिखती हो | यहां से शुरू होकर एक के बाद एक नए किस्से , मानो उनकी एक लंबी कतार जो वह अपने जहन में जाने कितने वक्त से संजोए बैठी थी | किस्से थे ,आज के ,कल के, बीते ज़माने के | इसी बीच मैंने उनसे एक प्रश्न किया ,दादी जी मृत्यु कितनी डरावनी होती है ना ? कैसे हर कोई खुद को मौत से निगल ना लेने की जद्दोजहद में लगा है | कोई किसी भी उम्र के पड़ाव में क्यों ना पहुंच जाए ,मगर कहता है , अभी मेरी उम्र ही क्या है भला? , मैंने हाथों से इशारा करते हुए कहा | दादी जी हंस पड़ी और बोली-मौत की कला जीने की कला का ही विस्तार है | जीवन से विदाई भी खुशी के चारों ओर ध्वनि और उत्साह के बीच होनी चाहिए | एक साहसी यात्री के तौर पर अंतिम सीमा का अनुभव करना चाहिए | उस पार कुछ नया होगा इसका पता लगाने में बेसब्र होना चाहिए ना की मृत्यु से डरा जाए | मृत्यु को बताएं ,सौम्या अंदाज में, थोड़ा इंतजार कर ,मैं अपना तकिया ठीक कर लू और गर्माहट की रजाई में घुस जाऊं क्योंकि मैं अंतिम मंजिल से पहले अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा हूं | सबके बीच से बाहर जाने में आनंद है| आग ,मिट्टी, पानी, हवा और अंतरिक्ष से मिलन का अनोखा आनंद ,जो लंबे समय से तुम्हारी प्रतीक्षा में थे | मेरा मुंह खुला देख वह मुस्कुराई और बोली ,तो मौत से डरो नहीं, उसे बेहिसाब उत्सव से गले लगाओ, जिस उत्सव से जीवन को लगाया है | सच में मेरे रोंगटे खड़े हो गए | मौत के प्रति उनका ऐसा नजरिया मुझे चौंका गया | ©Drishti Nagpal

नजरिया चौंका गया

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