बीज
छोटा सा, कतरा सा, बिल्कुल नाचीज़
बेजान अनजान बेसुध फ़रदीन।
कुछ करने में नाकाम
कोस रहा अपना ज़मीर
मिला साथ तो
उड़कर आया संग समीर।
फिर माटी में आकर
बरखा की बून्दों की सोहबत पाकर
हुआ आगाज़,
नन्हा पौधा बन चुका था बीज
टिमटिमाते देखा इस दुनियाँ को
सीख रहा तमीज़।
बीता वक़्त,
बीज हो के बड़ा सख़्त
अब बन चुका था अज़ीम दरख्त।
तेरे अंदर भी तो बीज है__
वक़्त ए समीर के संग उड़ाकर
दिले ज़मीं पे उगाकर
मजबूत इरादों की बारिश का पानी पिलाकर
उस बीज को सींच ले
इक दिन जिगर की ज़मीं पे
खड़ा होगा मज़बूत दरख़्त।
जिस पर हौंसलों के लगेंगे फल
कल आज और कल।
चन्द्र
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