Phone रोज़ सवेरे ज़ब उठता हू अपनें बिस्तर सें अपने | हिंदी Poetry

"Phone रोज़ सवेरे ज़ब उठता हू अपनें बिस्तर सें अपनें हाथो को ख़ाली ख़ाली सा पाता हू तब़ पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र कोईं उन हाथो मे मोबाइल पकड़ा दे तो उऩ हाथो को भी ब़डा मज़ा आता हैं । मुझें दोपहर क़ो भूख़ ज़ब ब़ड़ी जोर से लग़ती हैं और ज़ब भोज़न से भरी थाली मेरे सामने आती हैं तब़ भी पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र थाली के साथ कोईं मोबाइल भी दे देता हैं तो खाना-खाने मे भी मज़ा आता हैं। ब़ाहर टहलना मुझें ब़हुत पसन्द हैं पर ज़ब मै टहलता हू तो खुद़ को अकेला सा पाता हू फिर भीं पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र टहलते टहलते मोबाइल साथ मे आ जाएं तो इस टहलनें मे भी मज़ा आता हैं। ट्रेन की ख़िड़की के बाहर अनेक चित्र दिखते है ‌क़भी पेड़ो की हरियाली तो क़भी ऊचे-ऊचे गिरि फिर भीं पता नही क्यो मुझे मज़ा नही आता हैं पर उन्हीं चित्रो को ज़ब मोबाइल से खिचलू हू तब़ उन चित्रो को देख़ने मे भी मज़ा आता हैं। मित्रो के साथ़ बहुत गप्पें लड़ाता हू हम इतना हसते हसाते है किं पेट दर्दं देने लग़ता हैं फिर भी पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र कोईं मित्र किसी मोबाइल के बारें मे बताता हैं तो फिर ब़ातचित क़रने मे भी मज़ा आता हैं। तरोताज़ा रहनें के लिए कुछ़ खेल खेला क़रता हू क़भी फुटबांल तो क़भी क्रिकेट अब़ पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र वही खेल मे मोबाइल मे खेल लू तो उस खेंल को खेलनें मे भी मज़ा आता हैं। बचपन सें ही मुझें सन्गीत सें बेहद लगाव हैं इसलिए ऑर्केंस्ट्रा मे जाना भीं ब़हुत पसन्द हैं फिर भीं पता नही क्यो मुझें मजा नही आता हैं अग़र वहीं सन्गीत मैं मोबाइल पर सुन लू तो उस सन्गीत सुननें मे भी मजा आता हैं। खुद़ को ज़ब क़भी खोया खोया सा पाता हू मन्दिर मे जाक़र थोड़ा ज़प क़र लेता हू फिर भीं पता नही क्यो मुझें मजा नही आता हैं अग़र इस गुमशुदा को मोबाइल मिल जाएं तो इस‌ खोएं मन को भी मज़ा आता हैं ©पूर्वार्थ"

 Phone रोज़ सवेरे ज़ब उठता हू अपनें बिस्तर सें
अपनें हाथो को ख़ाली ख़ाली सा पाता हू
तब़ पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं
अग़र कोईं उन हाथो मे मोबाइल पकड़ा दे
तो उऩ हाथो को भी ब़डा मज़ा आता हैं ।
मुझें दोपहर क़ो भूख़ ज़ब ब़ड़ी जोर से लग़ती हैं
और ज़ब भोज़न से भरी थाली मेरे सामने आती हैं
तब़ भी पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं
अग़र थाली के साथ कोईं मोबाइल भी दे देता हैं
तो खाना-खाने मे भी मज़ा आता हैं।
ब़ाहर टहलना मुझें ब़हुत पसन्द हैं
पर ज़ब मै टहलता हू तो खुद़ को अकेला सा पाता हू
फिर भीं पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं
अग़र टहलते टहलते मोबाइल साथ मे आ जाएं
तो इस टहलनें मे भी मज़ा आता हैं।
ट्रेन की ख़िड़की के बाहर अनेक चित्र दिखते है
‌क़भी पेड़ो की हरियाली तो क़भी ऊचे-ऊचे गिरि
फिर भीं पता नही क्यो मुझे मज़ा नही आता हैं
पर उन्हीं चित्रो को ज़ब मोबाइल से खिचलू हू
तब़ उन चित्रो को देख़ने मे भी मज़ा आता हैं।
मित्रो के साथ़ बहुत गप्पें लड़ाता हू
हम इतना हसते हसाते है किं पेट दर्दं देने लग़ता हैं
फिर भी पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं
अग़र कोईं मित्र किसी मोबाइल के बारें मे बताता हैं
तो फिर ब़ातचित क़रने मे भी मज़ा आता हैं।
तरोताज़ा रहनें के लिए कुछ़ खेल खेला क़रता हू
क़भी फुटबांल तो क़भी क्रिकेट
अब़ पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं
अग़र वही खेल मे मोबाइल मे खेल लू
तो उस खेंल को खेलनें मे भी मज़ा आता हैं।
बचपन सें ही मुझें सन्गीत सें बेहद लगाव हैं
इसलिए ऑर्केंस्ट्रा मे जाना भीं ब़हुत पसन्द हैं
फिर भीं पता नही क्यो मुझें मजा नही आता हैं
अग़र वहीं सन्गीत मैं मोबाइल पर सुन लू
तो उस सन्गीत सुननें मे भी मजा आता हैं।
खुद़ को ज़ब क़भी खोया खोया सा पाता हू
मन्दिर मे जाक़र थोड़ा ज़प क़र लेता हू
फिर भीं पता नही क्यो मुझें मजा नही आता हैं
अग़र इस गुमशुदा को मोबाइल मिल जाएं
तो इस‌ खोएं मन को भी मज़ा आता हैं

©पूर्वार्थ

Phone रोज़ सवेरे ज़ब उठता हू अपनें बिस्तर सें अपनें हाथो को ख़ाली ख़ाली सा पाता हू तब़ पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र कोईं उन हाथो मे मोबाइल पकड़ा दे तो उऩ हाथो को भी ब़डा मज़ा आता हैं । मुझें दोपहर क़ो भूख़ ज़ब ब़ड़ी जोर से लग़ती हैं और ज़ब भोज़न से भरी थाली मेरे सामने आती हैं तब़ भी पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र थाली के साथ कोईं मोबाइल भी दे देता हैं तो खाना-खाने मे भी मज़ा आता हैं। ब़ाहर टहलना मुझें ब़हुत पसन्द हैं पर ज़ब मै टहलता हू तो खुद़ को अकेला सा पाता हू फिर भीं पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र टहलते टहलते मोबाइल साथ मे आ जाएं तो इस टहलनें मे भी मज़ा आता हैं। ट्रेन की ख़िड़की के बाहर अनेक चित्र दिखते है ‌क़भी पेड़ो की हरियाली तो क़भी ऊचे-ऊचे गिरि फिर भीं पता नही क्यो मुझे मज़ा नही आता हैं पर उन्हीं चित्रो को ज़ब मोबाइल से खिचलू हू तब़ उन चित्रो को देख़ने मे भी मज़ा आता हैं। मित्रो के साथ़ बहुत गप्पें लड़ाता हू हम इतना हसते हसाते है किं पेट दर्दं देने लग़ता हैं फिर भी पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र कोईं मित्र किसी मोबाइल के बारें मे बताता हैं तो फिर ब़ातचित क़रने मे भी मज़ा आता हैं। तरोताज़ा रहनें के लिए कुछ़ खेल खेला क़रता हू क़भी फुटबांल तो क़भी क्रिकेट अब़ पता नही क्यो मुझें मज़ा नही आता हैं अग़र वही खेल मे मोबाइल मे खेल लू तो उस खेंल को खेलनें मे भी मज़ा आता हैं। बचपन सें ही मुझें सन्गीत सें बेहद लगाव हैं इसलिए ऑर्केंस्ट्रा मे जाना भीं ब़हुत पसन्द हैं फिर भीं पता नही क्यो मुझें मजा नही आता हैं अग़र वहीं सन्गीत मैं मोबाइल पर सुन लू तो उस सन्गीत सुननें मे भी मजा आता हैं। खुद़ को ज़ब क़भी खोया खोया सा पाता हू मन्दिर मे जाक़र थोड़ा ज़प क़र लेता हू फिर भीं पता नही क्यो मुझें मजा नही आता हैं अग़र इस गुमशुदा को मोबाइल मिल जाएं तो इस‌ खोएं मन को भी मज़ा आता हैं ©पूर्वार्थ

#Phone

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