राह कठिन है मेरी देखो ,बेचैनी का आलम है
सोच रहा हुं कुछ कर जाऊं ,करके भी कुछ न कर पाया
मौज नहीं बचा है मुझमें ,फिर भी सब अच्छा ही बतलाता हूं
रही सही राह डगर में गिरता ही जाता हूं
उठता हूं मैं जोर लगाकर ,फिर नई राह पर चल पड़ता हूं
कोशिश के हर नए प्रयास में ,पहले से ज्यादा गंभीर पता हूं
सफल नहीं अभ्यास मेरे ,फिर भी करता ही जाता हूं
नई सोच और नए उमंग से ,मंजिल की ओर बढ़ता ही जाता हूं
©एकलव्य
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