"हम भी घर के राजा थे, माँ यही बुलाया करती थी,
अपनी ममता का सर पर मेरे,ताज सजाया करती थी,
घर, गली ,मोहल्ले ,में सिक्का मेरा ही चलता था,
अपनी मर्ज़ी से सुबह हुई,दिन भी मर्ज़ी से ढलता था,
ना राज काज चिंता थी ,पिताजी महामंत्री जो ठहरे,
सब भार था उनके कंधों पर, संकट हो कितने गहरे,
जब से माँ का आँचल छूटा, राज काज सब छूट गया,
मात्र सिपहसालार बने ,वो राजसिंहासन टूट गया,
अब जिम्मेदारी इतनी हैं, उस बोझ को लेकर जीते हैं,
देख आईने में ख़ुद को, बस सब्र के आँसू पीते हैं।।
पूनम आत्रेय
©poonam atrey
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