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सहज मिल रही है खुशी
बेशकीमत है ....
मगर एहसास नहीं ...
कोई परोस कर दे
इसका इंतज़ार है ....
नियति ...ये प्रश्न है तुमसे ....
कब तक सहज बिखरी खुशी से...
ऐसे मिलेंगे हम
क्या ये इंकार नहीं ...
कहीं ऐसा ना हो
कोई परोसे इस इंतज़ार में
कोई और बटोर ले....
खुशी मेरी-तेरी नहीं होती...
एहसासों में ढालना पड़ता है ...
खुशी की भूख चमकती है...
इच्छाएँ ठुमकती हैं ....
एहसासों के हाथ खुद-ब-खुद उठते हैं ...
दूर-सुदूर गाँव से
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से
लहराती नदियों से
उछलती लहरों से
शांत किनारों से
बहती हवाओं से
नियति ये हैं सारे तुम्हारे ही इशारे ...
और कभी-कभी
जो आस-पास है
जिसके नाम है खुशी
वो ही अनजान है
क्यों...होता है ऐसे
नियति ... ये तुमसे प्रश्न है
©सुरेश सारस्वत