- कुण्डलिया - "क्रोध"
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1-
क्रोधी को इस बात का, रहे न कोई बोध।
क्षतिकारक होता सदा, जब भी आता क्रोध।।
जब भी आता क्रोध, बुद्धि भी है चकराती।
भले-बुरे की बात, ज़रा भी समझ न आती।।
क्रोध मनुज का शत्रु, प्रगति का भी अवरोधी।
तन-मन-धन सब नष्ट, स्वयं करता है क्रोधी।।
2-
आता है जिस व्यक्ति को, बात-बात में क्रोध।
संभावित नुकसान का, उसे न रहता बोध।।
उसे न रहता बोध, क्रोध से बुद्धि नशाती।
समझाइश की बात, समझ में उसे न आती।।
अति क्रोधी इंसान, किसी को नहीं सुहाता।
खो देता सुख-शांति, क्रोध जिसको भी आता।।
- हरिओम श्रीवास्तव -
©Hariom Shrivastava
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