एक ही धन है इस जगत में, वह परमात्मा है!
उसको छोड़कर हम और सब खोजते हैं। इसलिए हम दरिद्र ही बने रहते हैं। इसलिए सब धन भी इकट्ठा हो जाता है, फिर भी कहां तृप्ति, कहां संतोष! नहीं- सब हो जाता है--बड़े महल, बड़ा धन, बड़ी तिजोड़ी, बड़ी प्रतिष्ठा और भीतर? भीतर वैसे के वैसे दरिद्र और भिखमंगे। धन बाहर पड़ा रहता है? भीतर की निर्धनता जरा भी उससे नहीं बदलती। भीतर की निर्धनता तो तभी जाती है जब असली धन मिलता, परम धन मिलता। उसका नाम ही परमात्मा है।
निर्धन था धनवंत हुआ भूला घर आया। और परमात्मा के मिलन में ही भूला घर लौटता है। नहीं तो भटके ही हुए हैं। लाख करो और सब कुछ उपाय, भटकन ही बढ़ती रहेगी। सिर्फ एक ही है, जहां भटकन मिटती है। क्यों भूला घर आया? क्योंकि परमात्मा हमारा वास्तविक घर है वह हमारा स्वरूप है। उसी से हम आए हैं, उसी में हमें जाना है। हम उसी की तरंग हैं। हमें उसी में लीन हो जाना है।
🌺🌹❤OG❤️🌹🌺
©SWAMI GYAN
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