ज़िंदगी में सारा झगड़ा ही ख़्वाहिशों का है जिन्दगी क्या है बस ख्वाहिशो का फलसफा है
कुछ बिखरे हुए ख्वाब और टूटे कसमे वादो का सिलसिला है
ख्वाहिश थी कभी जल्द बड़े हो जाने की
आज ख्वाहिश है उसी बचपन में खो जाने की
हँसता हुआ बचपन वो खिलखिलाता हुआ बचपन
ख्वाहिश बनकर रह गया है वो बेतकल्लुफ बचपन
फिर आया दौरे जवानी और शुरु हुई नयी ख्वाहिशो की कहानी
याद है वो पहला प्यार जिसे कभी अपना बनाने की थी ठानी
पर जनाब ये ख्वाहिश है कहा किसी की पूरी होती है
इश्क़ के अधुरे हर्फ की तरह ये भी अधुरी रहती है।
ख्वाहिश, हसरत और जरुरत बस इसमे ही सिमट गयी है जिन्दगी
उम्मीद के मरासीम मे कट रही है जिन्दगी
ख्वाहिश और हसरातों की भीड में जीना भूल गयी हूँ
अब खुली हवा में सांस लेना भूल गयी हूँ
शब्दों के जरिये क्ल्पनायों का सफर करती हूँ
इस सफर में ही अपनी ख्वाहिशो को मुकम्मल करती हूँ।
शिखा शर्मा
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