जाओ! छोड़ो ख़त्म हुई हैं बातें सब,
तुम क्या समझोगे?
कैसे बीती हैं करवट में रातें सब,
तुम क्या समझोगे?
जिसको नहीं मिला कोई,
दिल की बातें बतलाने को,
जिसने चुप रह कर मांगा है,
वक्त ज़रा मर जाने को,
उसके दिल के वीराने को,
एक अधूरे अफसाने को,
क्या समझोगे?
तन्हा बीती हैं कितनी बरसातें सब,
तुम क्या समझोगे?
जिसने अभी अभी सीखा था,
आँखों में पानी भरना,
जिसने अभी अभी सीखा था,
होंठों से बातें करना,
एक अनकही नादानी को,
छुपी शरारत बचकानी को,
क्या समझोगे?
ख़ुद से जो हर पल मिलती हैं मातें सब,
तुम क्या समझोगे?
जिसके हर अपने ने उसको,
बीच राह पर छोड़ा है,
वक्त ज़रूरत आ जाने पर,
हर एक ने मुँह मोड़ा है,
लगे पीठ पर हर खंजर को,
हर तरफ तबाही के मंज़र को,
क्या समझोगे?
अपनों के चहरों में छुपी है घातें सब,
तुम क्या समझोगे?
©words by Diya
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