मजदूर हूँ साहब,मजबूर हो गया हूँ ।
रोज काम करता हूँ रोटी के लिए,
आज रोटी से ही दूर हो गया हूँ ।
जूझ रहा आज जिन्दगी बचाने,
और एक वक़्त की रोटी खाने।
क्योंकि मजदूर हूँ साहब,मजबूर हो गया हूँ।
घर से दूर चला था मैं,
दूसरो का घर बनाने को,
अपना घर गुमनामी में रख,
इमारतों को मशहूर बनाने में।
क्योंकि मजदूर हूँ साहब, मजबूर हो गया हूँ।
अच्छा साहब क्या याद है आपको,
आपने वोटो कि खातिर, मुझे कुछ नोट दिखाकर,
दूर शहरों से बुलवाया था,
कल आप कुर्सी के लिए मजबूर थे,
आज मैं रोटी के लिए मजबूर हूं ।
क्योकि मैं मजदूर हूँ साहब,मजबूर हो गया हूँ ।
नंगे पाँव चला न जाये, पर किसी को रहम न आए,
पर ये सड़कें बोल पड़ी है मुझसे,
तुमने मुझे बनाया और तुमको ही मैं जला रहा हूँ,
तो मैंने भी अपना दर्द छिपाये कह दिया ,
तुम भी मजबूर हो गए हो,मै भी मजबूर हो गया हूँ
रास्ते में चलते चलते, खबरों में मशहूर हो गया हूँ,
अब आस नहीं किसी से,आत्मनिर्भर तो जरूर हो गया हूँ,
क्योकि मैं मजदूर हूँ साहब मजबूर हो गया हूँ ।
रोशनी ध्रुव ✍
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