आज हिन्द में
लाखों कविताएं लिखीं जा रहीं है,
पर
ये कविता
प्यार से उपजी हुई नहीं है
और ये
बिछड़े प्रेमी का संवाद भी नही है
किसी पत्रिका के
विशेष अंक में छापी गई नहीं हैं।
ये लिखी जा रही है,
स्याह तप्ती सड़कों पर
खून से लतपथ
फोके पड़े पैरों से
पसीने से
लाचारी से
चीख से
झंनाहट से
भन्नाहट से।
पर
ये कविता
आत्मनिर्भर है,
इसने अपने छापे जाने के लिए
भरोषा नहीं किया
मीडिया पर
पत्रकार पर
कवि पर
कथाकार पर
यूनिवर्सिटी के सेमिनार पर,
सरकार पर
कमिटी की रिपोट पर
सरकारी योजनाओं पर
प्रथम सेवक पर
आम सीएम पर।
ये कविता सक्षम है,
खोखले आदर्शवादी हिंदुस्तान को
आईना दिखाने में,
और चीख चीख कर कह रही है
हिंदुस्तान की कहानी
कह रहीं है
अमीरों के भरोसे
गरीबों की तकदीर छोड़ देनेवाले
नेताओं की कहनीं
ग़ांधी के ट्रुस्टीशिप की
विनोवा के भूदान की
मोदी की
अमीरों से अपील की।
ये कविता
गढ़ रही है,
एक हिंदुस्तान की तस्वीर
जिसे दिखाने की हिम्मत
किसी मीडिया में नहीं थी
जिसे छापने की हिम्मत
किसी पत्रिका में न थी।
जिसे छुपाने की कोशिश की गई,
चीखते नारों से
विश्वगुरु के खोखले वादों से
भव्य इतिहास की आड़ में।
और
जो दब गई थीं,
सपनों की भीड़ में
थक कर सों गईं थीं
पर जिंदा थीं
और
आज
वो
चमक रही है
खून सी
हिंदुस्तान की सड़क पर
पीड़ा लिए
पिघल कर
लड़ कर
सूरज की रोशनी में
रात की अन्धेरी में
टिमटिमाते तारों में
और चीख रही है
मौत
गहरे सन्नाटों में
साजिशों में।
©Vikram Prashant "Tutipanktiyan "
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