उन बारिशों की बूंदों को,गुजरे ,
एक जमाना हो गया
जहाँ मिट्टी के घरों से बाहर निकल,
दोस्तों के साथ भीगना ,
आज तो मेघों की गरज से महलों में छिप जाना,
वो सावन के बरसने पर कच्ची सड़कों पे ,
कुछ मिट्टी में तो कुछ बरसते पानी में,
दोस्तों के साथ खेलते थे अठखेलियां
आज वो बूँदे नहीं,
न वो पुराने दोस्त गुम हो गये ,
जो न भीगने पर रूठ जाया करते थे ,
आज हाथ खींचते भी है तो रूठ जाया करते हैं।
क्युंकि आज कीमती कपड़ों के भीगने का डर है,
उस वक्त का सावन भी कुछ और था न कपड़े भीगने का डर न तन बदन भीगने का डर
न छींक आने का डर
ढूँढू मैं वो जमाना मिलता नहींअब इधर।
वीणा चौबे
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