कितना खेल खेलता इन्सान यहाँ,
प्रकृति भी शर्मिन्दा हो जाती है.!
किनता बेपरवाह हो जाता है यहाँ,
पैसे की ये भूल, सब भूल जाती है.!
चाहे कितना भी कष्ट क्यों ना दो इसे,
ये अपना कहकर माफ कर जाती है.!!
ये इन्सानों सी फितरत नहीं रखता,
सब बुरा सहकर भी भूल जाती है..!!
तभी तो ये सृष्टि, कहीं धरती, कहीं स्वर्ग,
कहीं धरा, तो कहीं प्रकृति कहलाती है..!!
सब किया इन्सान का बुरा ये भूल जाती है..!
ना माने इसकी तो ये अपना रूप दिखाती है..!
खुद को करके खुद से जुदा यहाँ पर,
ये अपना भी पूर्ण नाश कर जाती है..!!
ये किसी और की नहीं है इस दुनियाँ में,
ये हमारी अपनी माँ कहलाती है..!
तभी तो ये सृष्टी, कहीं धरती, कहीं स्वर्ग,
कहीं धरा, तो कहीं ये प्रकृति कहलाती है..।।
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