साए
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इतने काले साए खुद के, ना देख सकें चेहरा अपना,
इस मन में कालिख पुती हुई, ना संग कोई ठहरा अपना,
बस मिलते हैं, मुस्काते हैं, आंखों में चमक दिखे सबको,
कोई पहचाने झूठे चेहरे, मन में बसते झूठे रबको,
है लफ्ज़ में धारा गंगा सी, पर मन में मैल समेटे हैं,
हम खुली आंख से लाश सरी, मृत्य शय्या पे लेटे हैं,
कोई गले लगे मुस्कादे हम, कोई मुड़े तो गाली देते हैं,
इतने टूटे से मन के हैं, कोई लाड़ करे रो देते हैं,
कल खुली हवा में मन था जब, सासों में एक पुरवाई थी,
उन कमरों में वापस बंद हैं, सायों से जहां लड़ाई थी,
एक मन में रोशनदान मेरे, जहां केवल घुप्प अंधेरा है,
मैं कहां पलटू, किसको देखूं, किन सायों ने फिर टेरा है
एक डोर से बांधा है जीवन, जिसे अंतर्द्वंद्व ही काट रहा,
मैं किस रास्ते पे चलूं 'शिवा', मेरा मन सब रस्ते भाग रहा,
मैं चाहता हूं किसी रस्ते पे, उद्गम तेरे डमरू का हो,
मेरे पैर में चाहें छाले हों, रास्ता तेरे संगम का हो ।।
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:– शिवम् नाहर
©Shivam Nahar
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