वह लड़की
जूठे बर्तन साफ़ करती वह, दूध के बर्तन की चिकनाई चेहरे पर मलती है।
कपड़ों के मैले बचे सर्फ़ में पैर डाल, उन्हें रगड़ती है, धोती है।
झाड़ू लगाते समय आईने में स्वयं को निहारती, चुपके से मुँह पर क्रीम या पाऊडर लगा मंद मंद मुस्कुराती है। तो कभी इंद्रधनुषी कांच की चूड़ियों को
अकारण ही बार बार पोंछती, सहलाती उदास हो जाती है।
मैं सब देखती हूँ, पर कुछ कह नहीं पाती क्योंकि वह केवल शरीर नहीं,
अपेक्षाओं और आकांक्षाओं से भरा कोमल मन है जो निर्धनता की तपती रेत पर मृगतृष्णा सा भ्रमित हुआ कुछ पल (उधार के ही सही) जीना तो चाहता है।
वह केवल एक लड़की नहीं, कमसिन उम्र के पड़ाव की मनःस्थिति है।
© सुकीर्ती भटनागर, चेतना के स्वर, प. १४
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