इमारतें, रास्ते, बसरे, सब नए दिख रहे थे,
चौड़ा हो गया है, कँगन घाट का किनारा,
पर उन गलियों में, वो ठहड़ाव नहीं थी,
अबकी बार लौटा तो, शहर में वो बात नहीं थी!
किताबें, मेजें, पगडंडियाँ, सब यूँ ही उलझे थे,
रातें व जुगनू व अलग-थलग दिखे,
शायद उनमें भी बची, वो सद्भाव(प्यार) नहीं थी,
अबकी बार लौटा तो, शहर में वो बात नहीं थी!
इमरती, जलेबी, समोसे, सब वैसे ही लगे,
वही स्वाद थी, कुल्हड़-चाय, बदाम और मखाने में भी,
पर लस्सी, छ़ाछ़ में, वो रसाव नहीं थी,
अबकी बार लौटा तो, शहर में वो बात नहीं थी!
बैट-बॉल, गिल्ली-डंडें, गाड़ियाँ, सब यूँ ही धरे(रखे) थे,
खिलते थे मिलते ही, अब रुष्ट(नराज) थी, वो निगाहें,
शायद बचपन की यारी, वो साथ नहीं थी,
अबकी बार लौटा तो, शहर में वो बात नहीं थी!
नदियाँ, रेत और कशती, सब ठिठके थे,
वैसे ही थी गंगाजल, पवित्र, मीठी व ठंडी
शायद हल्फों (लहरों) में, वो उमड़ाव नहीं थी,
अबकी बार लौटा तो, शहर में वो बात नहीं थी!
थोड़ा पराया लगने लगा है ये शहर,
उस रेत के टीले से छोटा भी दिखने लगा है,
शायद हममें, वो लगाव नहीं थी,
अबकी बार लौटा तो इस शहर में, वो बात नहीं थी!
©Roy Manu
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