आओ कहीं मिलें ,मिलते हैं कहीं।
तुम चाहो तो अपन ,चलते हैं कहीं।।
ये भीड़ चारों ओर, क्यों घुमड़ रही है।
चलो बीराने में जाकर, संभलते हैं कहीं।।
ज़ोर आज़माइश हम न कर सके।
अपनों से लड़कर लोग, चलते हैं कहीं।।
जो गए थे हमसे वादा ए वफा करके।
वो लोग आज भी, खलते हैं कहीं।।
जो लोग पक्के हो चुके हैं टूट टूटकर।
उनके भी अश्क "आकिब" , निकलते हैं कहीं??
मुकम्मल न हो सके मगर ख़तम भी न हुए।
वो ख्वाब आज भी टहलते हैं कहीं ।।
हालातों की चोट खाए बैठे हैं जो।
वो बच्चे खिलौनों से बहलते हैं कहीं??
रोज़ी हराम की तुमको मुबारक हो।
पैसे हराम के, फलते हैं कहीं??
©Akib Khan
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