एक डोर मेरे हाथ थी
कहीं-कहीं से उसका रंग फीका पड़ा था
उसमे लगीं बेहिसाब गांठ थी
फिर भी मैं उस पतंग को उड़ा रहा था
वो अन-चाहा सा रिश्ता निभा रहा था...
-मनीष महरानियाँ
देख कर मुझे यूँ नज़रे ना चुराया करो
बे खौफ़ होकर कुछ अपनी बाते सुनाया करो,
तुम्हें डर है शायद मैं कुछ कह ना दूँ
सुनो मेरी बातों पर इतना गौर ना किया करो..
-मनीष महरानियाँ
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