चल रही हूं, पर बस चल रही हूं
काफी नहीं है कि अंदर ही अंदर जल रही हूं
रूह तक पहुंचोगे कैसे, रास्ते तो बनाने दो
मै खुद से ना मिल पाई, जरा मुझको मुझसे मिल जाने दो
रातों की खामोशियां सुनती हूं,
आज भी कहीं खुद में गुम सी हूं
सुन के अनसुना कर दिया जिन्होंने
आज यह अल्फाज़ उन्हें सच्चे लगते है,
दर्द छुपाए है मैंने जिनके पीछे, ये भी उन्हें अच्छे लगते है
मंज़िल की परवाह नहीं कर रही, रास्ते मौका नी देते सोचने का,
हर बार उस मोड़ पे खड़ी हो जाती हूं, कुछ है जो इजाज़त नहीं देता लौटने का
जो मेरी खामोशियां सुन सकते हो तो, सुन के अनसुना कर देना अब,
अल्फाज़ मेरे सब बोल ही देते, इन्हे ही पढ़ के समझ लेना सब
किताब के पन्ने पलटते ही ये पल ख़तम हो रहे है
दूसरों को धुंदने चले थे, हम खुद ही में ही कहीं खो रहे है
लिखते लिखते कहीं दूर चली जाती हूं
लोग बुलाते है, मै फिर भी नहीं आती हूं,
आऊ भी तो क्यों?
ये मुझे नहीं समझ पाते है, इसीलिए तो इन अल्फाजो की दुनिया को घर बनाती हूं
खुद को खुद में पा लूंगी कभी,
इस राह में ये भी देखना है
सब कुछ हार के भी, मुझे तो ताउम्र लिखना है।।
©Nikita Rai
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