बहुत वक्त हो चला है सुकून से
खुद के साथ बैठे हुए
कामयाब होने की इस भाग दौड़ में
वह इत्मीनान वाला
पल कहां,
वह आरामदायक कुर्सी तो है
पर उस पर बैठकर
कुछ लम्हे याद कर सके वह
फुर्सत कहां,
जब भी आता हूं
इन खुले खुले पहाड़ों के बीच में
सोचता हूं आलीशान और साफ-सुथरे शहरों में यह दिलचस्प
मंजर कहां.......
बहुत वक्त हो चला है सुकून से
खुद के साथ बैठे हुए
कामयाब होने की इस भाग दौड़ में
वह इत्मीनान वाला
पल कहां,
वह आरामदायक कुर्सी तो है
पर उस पर बैठकर
कुछ लम्हे याद कर सके वह
फुर्सत कहां,
जब भी आता हूं
इन खुले खुले पहाड़ों के बीच में
सोचता हूं आलीशान और साफ-सुथरे शहरों में यह दिलचस्प
मंजर कहां.......
रोशनी तो हर जगह है पर वह
उजाला कहीं खो सा गया है,
इंसान तो जाग रहा है
पर इंसानियत का दौर
कहीं खो सा गया है,
ऊंची ऊंची इमारतों के
बड़े-बड़े शहर तो बना लिए
पर सुकून दे सके वह
आशियाना कहीं खो सा गया है....
(RONAK SOLANKI)
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