अरमानों को लफ़्ज़ों से छुपाते किसी को देखा है
ख्वाबों को खुद के ,खुद ही मिट्टी में मिलाते किसी को देखा है
देखा है कभी वो बेबसी ,जो बयां नहीं होती
खुद को कभी ,खुद ही दफनाते किसी को देखा है
तो देखा ही क्या तूने उस पिता के नजरिए से ?
सुना कभी उन लफ्जो को जों बयां नहीं होते
सोने का लिबास पहनने वाले को, लिबास छुपाते कभी देखा है
आंखो कि मायूसियों को ,चश्मे से चुराते किसी को देखा है
कभी कंधो के बोझ से, लड़खड़ाते किसी को देखा है
तो देखा ही क्या तूने उस पिता के नजरिए से ?
बाढ़ के मौसम में दौड़ लगाते किसी को देखा है
अपनों के ख्वाबों के खातिर ,अपने ख्वाबों को मिटाते किसी को देखा है
लाचार इंसान को ,लाचारी छुपाते कभी देखा है
एक बुझे चिराग को चिराग जलाते कभी देखा है
तो देखा ही क्या तूने उस पिता के नजरिए से ?
आंखो में अश्क लेके, अश्क मिटाते किसी को देखा है
भूखे इंसान को ,भूख छुपाते कभी देखा है
आग में जलते को, आग बुझाते कभी देखा है
मरते हुए इंसान को ,मौत से बचाते कभी देखा है
तो देखा ही क्या तूने उस पिता के नजरिए से ?
कटी फसल को कभी, लहलहाते हुए देखा है
टूटे घर को कभी ,चमचमाते हुए देखा है
घायल को , दवा बनाते कभी देखा है
गूंगे को चिल्लाते कभी देखा है
शेर को जंगल में गिड़गिड़ाते कभी देखा है
तो देखा ही क्या तूने उस पिता के नजरिए से ?
बूढ़े को कभी रेस लगाते हुए देखा है
तड़पते को कभी, तड़प मिटाते हुए देखा है
जुगनू को अंधकार ,हटाते हुए देखा है
तो देखा ही क्या तूने उस पिता के नजरिए से ?
ठंड के मौसम में ,तालाब में नहाते किसी को देखा है
गर्मी के भीषण आग में, पैर जलाते किसी को देखा है
हसकर अपने सारे गम भुलाते किसी को देखा है
आंखो में आंसू लेके मुस्कुराते किसी को देखा है
तो देखा ही क्या तूने उस पिता के नजरिए से?
@शिखर
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