क्यों ना हम कुछ ऐसी दिवाली मनाए जिसमें "मैं" नहीं "हम सब" आये वो माँ के हाथ की मिठाई पड़ोसी के घर-घर पहुँचाये
सब के मन में खुशियाँ झलकायें क्यों ना हम वैसी दिवाली मनाएं!!
बड़े बुजुर्गों के आशीर्वाद को क्यों न जेब में धीरे से छुपाएं,
आतिशबाज़ी शोरशराबा नहीं
नए सोच के दीप की ज्योत जलायें
क्यों न हम वैसी दिवाली मनाएं!!
उन पलों को मोबाइल कैमरे में नहीं,
अपनी यादों में समेटे जिन्हें चाह के भी न हटा पाएं
क्यों न हम वैसी दिवाली मनाये!!
नफरत के विलोम को अपनाएं
मन को दीपक की लौ सा शांत बनाएं,
क्यों न ये दिवाली भी वैसी मनायें!!
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