मुस्कुराता है ऊपर से
अंदर से जो लहू लुहान है
क्या करें बिचारा
दी गई उसे पुरुष की पहचान है
के मजबूत हो तुम रो नहीं सकते
जो दिखते हो ऊपर से
वह अंदर हो नहीं सकते
दिल तो तुम्हारा भी,
दुखता है पर बता नहीं सकते
पुरुष हो ना तुम इसलिए
ग़म अपना
जमाने को जता नहीं सकते
ओढ़ कर वो
नकली मुस्कुराहट का लिबास
हर दिन सफर करता है
टूटता है गिरता है
उठता है और बिखरता है
घर की जरूरत का गुणा भाग कर
तमाम परेशानियों को
सबसे,छिपाकर
न जाने किन ख्यालों से गुजरता है
प्यार और दुलार की
उसे भी दरकार होती है
तबीयत तो उसकी भी
नासाज और बीमार होती है
आसान नहीं है होना आदमी यहां
हिस्से में जिसके धूप कम होती है
दामन थामे इनका शब ए तार होती है ।
अपर्णा विजय
©अपर्णा विजय
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