माना की गलती मेरी थी,
पर क्या उस गलती की इतनी बड़ी सजा जरूरी थी।
तूने सबकुछ खो कर अपना, मुझको पाया था,मैने तेरे लिए अपना आत्मसम्मान तक भुलाया था,लेकिन पता नहीं क़िस्मत की क्या मंजूरी थी,
माना कि गलती मेरी थी
पर क्या उस गलती की इतनी बड़ी सजा जरूरी थी।
दोस्ती का भी एक रिश्ता गहरा था मेरा,तूफानों के भंवर में उसको बचाने की कोशिश हजारों की थी,दिये सी रौशन थी मैं,और खुद से उम्मीद सूरज के उजालों की थी,
माना कि गलती मेरी थी,
पर क्या उस गलती की इतनी बड़ी सजा जरूरी थी।
हर रिश्ते से ऊपर एक रिश्ता है मेरा,दुनिया में लाने का श्रेय है जिसका,अपने और उनके खुशियों में से एक का चुनाव करने की सोच भी बेफिजूल ही थी,उनकी मुस्कुराहट के बिना हर दिन हर शाम अधूरी थी,
माना कि गलती मेरी थी,
पर क्या उसकी इतनी बड़ी सजा जरूरी थी।
शिकायत नही है मुझे किसी रिश्ते से,
मेरी ओर मेरी खुशियों की तो हमेशा से दूरी थी,
माना गलती मेरी थी,
लेकिन पूछना चाहती हूं हर रिश्ते से,
क्या उस गलती की इतनी बड़ी सजा जरूरी थी।
©Dr Vaishali gupta
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