दादा का संकल्प पुंज,
स्मारक से उस मारग तक।
क्या लिख सकती मेरी ये लेखनी स्मारक को शब्दों में?
क्या कभी पिरोया जा सकता मोती माला को क्षण भर में,
क्या कहें शब्द फीके लगते,जिसकी गौरव गाथा लिखने में,
क्या लड़ सकते अज्ञान अंधेरे, जब सूरज आया हो रण में।
क्या इन दीवारों की शोभा, कहलाता है ये स्मारक?
क्या भाषा, बोली का संगम मिलना है प्यारा स्मारक?
क्या इस छत के नीचे विद्वानों से भरा भवन है स्मारक?
है आत्मानुभूति और तत्त्वज्ञान, बस वो है मेरा स्मारक।
जिसका संरक्षण गुरु करते, वो बीज एक दिन फलता है।
हो भारी बारिश या तेज प्रबल, सब हंसते हंसते सहता है।
हम उन गुरुओं की छांव में है, जिनका रग रग भींगा रस से,
क्या कर सकता अज्ञान प्रबल,जहां समयसार के हो चर्चे ।
ये वही धरा है जिसपर सींचा जाता है, विद्वानों को।
ये वही धरा है जिसपर टोडरमल जैसे विद्वान हुए,
ये वही धरा है जो युग युग से जैनों की काशी कहलाई,
ये वही धरा है जहां चमकता स्मारक सा अवतारी ।
है लक्ष्य हमारा जिनवाणी को घर घर तक पहुंचना है,
पंचम काल के अंत नहीं उसके आगे भी जाना है।
अब ध्वजा हमें आ मिली इसे अब गगन चुम्बी लहराना है,
दादा के उस पावन प्रण को अब हमे आगे ले जाना है।
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©Abhishek Jain
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