घुट-घुटकर यूँ तो रोज, हमी जीते हैं।
बस बहुत हो चुका, चलो चाय पीते हैं।।
जीवन में मुश्किल रोज, नयी आती हैं।
नदियाँ भी तट पर मैल, बहा लाती हैं।
दिन भर दिमाग में ऊँच-नीच चलती है।
दुनिया की तब हर एक बात खलती है।
ऐसे ही कितने साल यहाँ बीते हैं।
बस बहुत हो चुका, चलो चाय पीते हैं।।
अदरक-इलायची संगति कर दी जाती।
जब गर्म चाय कुल्लड़ में भर दी जाती।
कर देता है मदहोश चाय का प्याला।
न्यौछावर इस पर कई-कई मधुशाला।
यूँ ही हम छोटे - बड़े घाव सीते हैं।
बस बहुत हो चुका, चलो चाय पीते हैं।
इससे बढ़कर फल, फूल, नहीं मेवा है।
इससे बढ़कर दूसरी नहीं सेवा है।
इससे बढ़कर के पुण्य नहीं दूजा है।
इससे बढ़कर कुछ अन्य नहीं पूजा है।
क्यों अब तक सबके चाय-पात्र रीते हैं?
बस बहुत हो चुका, चलो चाय पीते हैं।।
©गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'
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