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White A appreciation post for my best friend (read in caption) ©Jayesh gulati

#विचार  White A appreciation post for my best friend 
(read in caption)

©Jayesh gulati

कुछ यादें है जो कभी दिल से निकाल नहीं सकता मना खामोश रहते है अब हम दोनों मगर तेरा भाई तुझे भुला नहीं सकता आधी रात को भी तू करदे कॉल तेरा भाई

12 Love

दोहा:- चरण रखें जब राधिके , रखे श्याम दो हाथ । बन परछाई नित्य ही , रहते उनके साथ ।। बैठे-बैठे जप रहे, राधा-राधा नाम । शूल चुभा पग राधिका , चीख उठे घनश्याम ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

#कविता  दोहा:-
चरण रखें जब राधिके , रखे श्याम दो हाथ ।
बन परछाई नित्य ही , रहते उनके साथ ।।

बैठे-बैठे जप रहे, राधा-राधा नाम ।
शूल चुभा पग राधिका , चीख उठे घनश्याम ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

दोहा:- चरण रखें जब राधिके , रखे श्याम दो हाथ । बन परछाई नित्य ही , रहते उनके साथ ।। बैठे-बैठे जप रहे, राधा-राधा नाम । शूल चुभा पग राधिका ,

14 Love

 .............

©jyoti raj kashyap

खुद का खाली पन अब भरा सा लगता है, किसी का कुछ भी कहना अब, जरा सा लगता है सुकून है इन बारिश की बूंदो की गड़गड़हट में भी, की इतना शोर देखकर भी,

90 View

#कलम_की_आवाज़ #nojotohindipoetry #दोहे #sandiprohila  कलम की आवाज़ (दोहे)

कलम चीख कर कह रही, सुन प्राणी नादान।
बल को मेरे जानकर, बनता है अनजान।।

खडग काटती एक को, मैं काटूंँ सब साथ।
मन में सच मेरे बसा, दुर्जन पीटें माथ।।

जिसका जैसा हाथ है, कलम करे वह काम।
सच से इसको प्रीत है, जिससे इसका नाम।।

वही कलम से काँपते, जिनके मन में चोर।
अधिकारी फिर सोचते, कैसे होगी भोर।।

जिसको इससे प्रेम है, सुंदर हैं वे लोग।
उत्तम वह रचना करें, करते सही प्रयोग।।

कलम कहे यह जानलो, करो नहीं नाराज़।
मेरी है विनती यही, सभी सुनें आवाज़।।
.........................................................
देवेश दीक्षित

©Devesh Dixit

#कलम_की_आवाज़ #दोहे #nojotohindipoetry nojotohindi कलम की आवाज़ (दोहे) कलम चीख कर कह रही, सुन प्राणी नादान। बल को मेरे जानकर, बनता है अनजान

189 View

White गीत :- उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से । भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव .... छोड़ सभी वह रिश्ते-नाते, बैठे ऊँचे आसन पे । पहचाने इंसान नही जो , भाषण देते जीवन पे ।। जिसे खेलना पाप कहा था , मातु-पिता औ गुरुवर ने । उसी खेल का मिले प्रलोभन , सुन लो अब सरकारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव ..... मातु-पिता बिन कैसा जीवन , हमने पढ़ा किताबों में । ये बतलाते आकर हमको , दौलत नही हिसाबों में ।। इनके जैसा कभी न बनना , ये तो हैं खुद्दारों में । दया धर्म की टाँगें टूटी , इन सबके व्यापारो से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव.... नंगा नाच भरे आँगन में, इनके देख घरानों में । बेटी बेटा झूम रहे हैं , जाने किस-किस बाहों में ।। अपने घर को आप सँभाले, आया आज विचारों में । झाँक नही तू इनके घर को , पतन हुए संस्कारो से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव..... दौड़ रहे क्यों भूखे बच्चे , तेरे इन दरबारों में । क्या इनको तू मान लिया है , निर्गुण औ लाचारों में ।। बनकर दास रहे ये तेरा , करे भोग भण्डारों में । ऐसी सोच झलक कर आयी , जग के ठेकेदारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव ... बदलो मिलकर चाल सभी यह , प्रकृति बदलने वाली है । भूखे प्यासे लोगो की अब , आह निकलने वाली है । हमने वह आवाज सुनी है , चीखों और पुकारों से । आने वाले हैं हक लेने , देखो वह हथियारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव .... उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से । भाषण देते वे अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

#कविता  White गीत :-
उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से ।
भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ....

छोड़ सभी वह रिश्ते-नाते, बैठे ऊँचे आसन पे ।
पहचाने इंसान नही जो , भाषण देते जीवन पे ।।
जिसे खेलना पाप कहा था , मातु-पिता औ गुरुवर ने ।
उसी खेल का मिले प्रलोभन , सुन लो अब सरकारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव .....

मातु-पिता बिन कैसा जीवन , हमने पढ़ा किताबों में ।
ये बतलाते आकर हमको , दौलत नही हिसाबों में ।।
इनके जैसा कभी न बनना , ये तो हैं खुद्दारों में ।
दया धर्म की टाँगें टूटी , इन सबके व्यापारो से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव....

नंगा नाच भरे आँगन में, इनके देख घरानों में ।
बेटी बेटा झूम रहे हैं , जाने किस-किस बाहों में ।।
अपने घर को आप सँभाले, आया आज विचारों में ।
झाँक नही तू इनके घर को , पतन हुए संस्कारो से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव.....

दौड़ रहे क्यों भूखे बच्चे , तेरे इन दरबारों में ।
क्या इनको तू मान लिया है , निर्गुण औ लाचारों में ।।
बनकर दास रहे ये तेरा , करे भोग भण्डारों में ।
ऐसी सोच झलक कर आयी , जग के ठेकेदारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ...

बदलो मिलकर चाल सभी यह , प्रकृति बदलने वाली है ।
भूखे प्यासे लोगो की अब , आह निकलने वाली है ।
हमने वह आवाज सुनी है , चीखों और पुकारों से ।
आने वाले हैं हक लेने , देखो वह हथियारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ....

उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से ।
भाषण देते वे अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

गीत :- उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से । भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव .... छोड़ सभ

9 Love

White A appreciation post for my best friend (read in caption) ©Jayesh gulati

#विचार  White A appreciation post for my best friend 
(read in caption)

©Jayesh gulati

कुछ यादें है जो कभी दिल से निकाल नहीं सकता मना खामोश रहते है अब हम दोनों मगर तेरा भाई तुझे भुला नहीं सकता आधी रात को भी तू करदे कॉल तेरा भाई

12 Love

दोहा:- चरण रखें जब राधिके , रखे श्याम दो हाथ । बन परछाई नित्य ही , रहते उनके साथ ।। बैठे-बैठे जप रहे, राधा-राधा नाम । शूल चुभा पग राधिका , चीख उठे घनश्याम ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

#कविता  दोहा:-
चरण रखें जब राधिके , रखे श्याम दो हाथ ।
बन परछाई नित्य ही , रहते उनके साथ ।।

बैठे-बैठे जप रहे, राधा-राधा नाम ।
शूल चुभा पग राधिका , चीख उठे घनश्याम ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

दोहा:- चरण रखें जब राधिके , रखे श्याम दो हाथ । बन परछाई नित्य ही , रहते उनके साथ ।। बैठे-बैठे जप रहे, राधा-राधा नाम । शूल चुभा पग राधिका ,

14 Love

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©jyoti raj kashyap

खुद का खाली पन अब भरा सा लगता है, किसी का कुछ भी कहना अब, जरा सा लगता है सुकून है इन बारिश की बूंदो की गड़गड़हट में भी, की इतना शोर देखकर भी,

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#कलम_की_आवाज़ #nojotohindipoetry #दोहे #sandiprohila  कलम की आवाज़ (दोहे)

कलम चीख कर कह रही, सुन प्राणी नादान।
बल को मेरे जानकर, बनता है अनजान।।

खडग काटती एक को, मैं काटूंँ सब साथ।
मन में सच मेरे बसा, दुर्जन पीटें माथ।।

जिसका जैसा हाथ है, कलम करे वह काम।
सच से इसको प्रीत है, जिससे इसका नाम।।

वही कलम से काँपते, जिनके मन में चोर।
अधिकारी फिर सोचते, कैसे होगी भोर।।

जिसको इससे प्रेम है, सुंदर हैं वे लोग।
उत्तम वह रचना करें, करते सही प्रयोग।।

कलम कहे यह जानलो, करो नहीं नाराज़।
मेरी है विनती यही, सभी सुनें आवाज़।।
.........................................................
देवेश दीक्षित

©Devesh Dixit

#कलम_की_आवाज़ #दोहे #nojotohindipoetry nojotohindi कलम की आवाज़ (दोहे) कलम चीख कर कह रही, सुन प्राणी नादान। बल को मेरे जानकर, बनता है अनजान

189 View

White गीत :- उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से । भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव .... छोड़ सभी वह रिश्ते-नाते, बैठे ऊँचे आसन पे । पहचाने इंसान नही जो , भाषण देते जीवन पे ।। जिसे खेलना पाप कहा था , मातु-पिता औ गुरुवर ने । उसी खेल का मिले प्रलोभन , सुन लो अब सरकारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव ..... मातु-पिता बिन कैसा जीवन , हमने पढ़ा किताबों में । ये बतलाते आकर हमको , दौलत नही हिसाबों में ।। इनके जैसा कभी न बनना , ये तो हैं खुद्दारों में । दया धर्म की टाँगें टूटी , इन सबके व्यापारो से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव.... नंगा नाच भरे आँगन में, इनके देख घरानों में । बेटी बेटा झूम रहे हैं , जाने किस-किस बाहों में ।। अपने घर को आप सँभाले, आया आज विचारों में । झाँक नही तू इनके घर को , पतन हुए संस्कारो से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव..... दौड़ रहे क्यों भूखे बच्चे , तेरे इन दरबारों में । क्या इनको तू मान लिया है , निर्गुण औ लाचारों में ।। बनकर दास रहे ये तेरा , करे भोग भण्डारों में । ऐसी सोच झलक कर आयी , जग के ठेकेदारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव ... बदलो मिलकर चाल सभी यह , प्रकृति बदलने वाली है । भूखे प्यासे लोगो की अब , आह निकलने वाली है । हमने वह आवाज सुनी है , चीखों और पुकारों से । आने वाले हैं हक लेने , देखो वह हथियारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव .... उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से । भाषण देते वे अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

#कविता  White गीत :-
उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से ।
भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ....

छोड़ सभी वह रिश्ते-नाते, बैठे ऊँचे आसन पे ।
पहचाने इंसान नही जो , भाषण देते जीवन पे ।।
जिसे खेलना पाप कहा था , मातु-पिता औ गुरुवर ने ।
उसी खेल का मिले प्रलोभन , सुन लो अब सरकारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव .....

मातु-पिता बिन कैसा जीवन , हमने पढ़ा किताबों में ।
ये बतलाते आकर हमको , दौलत नही हिसाबों में ।।
इनके जैसा कभी न बनना , ये तो हैं खुद्दारों में ।
दया धर्म की टाँगें टूटी , इन सबके व्यापारो से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव....

नंगा नाच भरे आँगन में, इनके देख घरानों में ।
बेटी बेटा झूम रहे हैं , जाने किस-किस बाहों में ।।
अपने घर को आप सँभाले, आया आज विचारों में ।
झाँक नही तू इनके घर को , पतन हुए संस्कारो से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव.....

दौड़ रहे क्यों भूखे बच्चे , तेरे इन दरबारों में ।
क्या इनको तू मान लिया है , निर्गुण औ लाचारों में ।।
बनकर दास रहे ये तेरा , करे भोग भण्डारों में ।
ऐसी सोच झलक कर आयी , जग के ठेकेदारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ...

बदलो मिलकर चाल सभी यह , प्रकृति बदलने वाली है ।
भूखे प्यासे लोगो की अब , आह निकलने वाली है ।
हमने वह आवाज सुनी है , चीखों और पुकारों से ।
आने वाले हैं हक लेने , देखो वह हथियारों से ।।
उलझ रहा है निशिदिन मानव ....

उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से ।
भाषण देते वे अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

गीत :- उलझ रहा है निशिदिन मानव , जिनके नित्य विचारो से । भाषण देते बन अभिनेता , सत्ता के गलियारों से ।। उलझ रहा है निशिदिन मानव .... छोड़ सभ

9 Love

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