मन मसोसकर रह जाता मन माया की तुड़पाई में,
तन से सत उड़ गया मिली फुर्सत यारों भरपाई में,
दुनिया के ताने-बाने में तितली सा मन अटक गया,
अंत समय सोना पड़ता मिट्टी की बनी रजाई में,
चकाचौंध के पीछे चलकर खोया जीवन की पूँजी,
नाहक पड़ा रहा हर कोई झूठी मान बड़ाई में,
रिश्तों का अनमोल खज़ाना ईश्वर ने उपहार दिया,
बहना भी हर साल बाँधती अपना प्रेम कलाई में,
रोग क्लेश, प्रेत बाधा से रुकते कारोबार यहाँ,
करती है विश्वास गाँव की जनता झाड़-फुकाई में,
चली गई पीढ़ियाँ कितनी पीड़ित है पुरूषार्थ अभी,
साक्षी है इतिहास हुआ कुछ हासिल नहीं लड़ाई में,
गुंजन मोती की चाहत में बैठा कबसे साहिल पर,
मिली खज़ाने की चाभी जब उतर गये गहराई में,
---शशि भूषण मिश्र 'गुंजन'
प्रयागराज उ॰प्र॰
©Shashi Bhushan Mishra
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