एक चश्मा मेरा, और एक चश्मा समाज का,
मंज़र अलग-अलग हैं दोनों के राज का।
मेरी नज़रों में तो ख़्वाबों का जहाँ है,
और समाज की नज़र में तो बस वो सज़ा है।
मैं देखता हूँ उम्मीदें और आसमान की बुलंदियाँ,
वो देखते हैं दायरे, बंदिशें और उनकी क़ैदियाँ।
मैं देखूं तो मुहब्बत है, बेबाक सी हवा है,
वो देखें तो रवायतें हैं, जो हर सांस पर सजा है।
शायद कोई फ़र्क नहीं, चश्मों के रंग से है,
या शायद सोच की हदें, जो समझ से परे है।
क्या कभी दोनों की नज़रें एक जैसी हो सकेंगी,
या रह जाएगी ये चश्मों की जंग, हमेशा अधूरी...
©UNCLE彡RAVAN
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