बेशक आजाद खयाल हु,मैं
लेकिन,अपनी मर्यादा में रहना
जानती हु,
नही आती मुझे चालाकियां ज़माने सी
मासूम सा मन लिए सादगी से चलना जानती हु
मुझे नहीं भाया कभी किसी की मेहरबानी में गुजर करना
मैंने अपनी कतरा भर जमीन बड़ी मेहनत से कमाई हैं
मुझे नहीं आते पैंतरे, भरोसे को कत्ल कर ने के
मैं तो हर टीस,हर एक काश का दर्द जानती हु
अब तो अंधेरे भी अच्छे लगते हैं मुझे
जो ठग लेती हैं,सपने दिखा कर
मैं, उस बेहरूपिया रोशनी से बचना जानती हु
मैं नहीं बन ना चाहती किसी से बेहतर
मेरे आगे कोई खुद कोई कभी कमतर न समझे
मैं,बस इस एहसास में बसना जानती हु
मुझ में कहा अब कोई ख्वाईशे है बची
मैं अपनी मामूलियत में ही,खुश रहना जानती हु
बेशक मैं चिराग नही हु घर का
रोशनी न हो लेकिन तो,मैं सूरज सा तपना जानती हु
मैंने नही की कोशिशें कभी चोट पहुंचे किसी को
राहतो की अहमियत का तकाजा है मुझे
मैं जलना जानती हु
यू भी ठोकरें रास आ ही जाती है,मुझे
मैं अकेले चलना जानती हु....
©ashita pandey बेबाक़
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