एक बांध जो कभी था ही नहीं
- सिद्धार्थ दाँ
एक गहरी दोस्ती थी नदी और तालाब में,
वो दोनों ही गहरे थे इस ख्वाब में।
मगर एक दिन आई दूरियों की रीत,
तालाब को चाहिए थी गहराई की जीत।
नदी अपना रुख बदलने चली,
अपनी राहों में अकेले बहने चली।
बिछड़ते वक्त दोनों ने ये बात ठानी,
कि मिलेंगे साल में जब छलकेगा बाँध का पानी।
पर किस्मत में लिखी थी सूखी रुत,
बारिश ने भी बरसने से कर ली जुस्त।
तालाब सूरज की आग में जलता गया,
नदी प्यास से तड़प-तड़पकर ढलता गया।
दोनों ने फिर देखा उस बाँध की ओर,
जिस पर टिके थे वो प्याले-से ख्वाब,
बिना ये जाने कि वो बाँध कभी था ही नहीं कहीं,
बस प्यार का था एक अधूरा सराब।
अब नदी बहती है विरान,
तालाब में बसी है बस सूनी पहचान।
उनकी मोहब्बत की कहानी है उदासियों की निशानी,
बिछड़ी हुई राहों की, खोए अरमानों की कहानी।
- मेरी कलम
(सिद्धार्थ दाँ)
©kalam_shabd_ki
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here