पकड़कर हथेली उसने जबा से लगाई,
जबां से लगाकर जो कलाकारी दिखाई.
कभी जबां को लगाती वो गाल पे मेरे,
कभी नाखूनों से खिचती खाल को मेरे.
अपने दांतो से पकड़ती वो कान को मेरे।
होठों से चुप कराती जुबाँ को मेरे,
कभी उपर तो कभी नीचे जा रही थी वो,
कतरा कतरा करके मुझको खा रही थी वो
की उसके कानों को चुमके मैं भी सब बताने लगा ,
क्या क्या भरा है मुझमे सबकुछ दिखाने लगा।
कभी माथे से लेकर पैरो तक उसमे सैर करता,
कभी कंधे पर अपने उसके दोनो पैर करता।
फिर एक दूसरे को धीरे धीरे खा रहे थे हम,
और सर्दी के मौसम मे पसीने से नहा रहे थे हम।
और सर्दी के मौसम मे पसीने से नहा रहे थे हम।।
©Vijay Sonwane
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