किचकिचाहट से सिर चकरा रहा मेरा
कुछ दिनों से झक्की सा व्यवहार है,
कब कहती हूँ किसी से की कोई बैठे
सुने मेरी दो - चार कविताएं।
कुछ दिनों से लिख नहीं पाई मैं कोई कविता,
रात भर सो न सकी उहापोह की स्थिति में,
छटपटा रही थीं मरणासन्न अवस्था में कविताएं
वो जो कह न पाईं अंतर्दशा अपनी
मैं लेट गयी उत्तर से दक्षिण की ओर
सिर किये ताकि मिल जाए इन्हें प्राणमुक्ति।
आज सुबह से परदे को न
जाने क्या दुश्मनी है खिड़की से जो
उलझ जा रहा बार-बार,
मैंने खिड़की खोल रखी है पूरब ओर
ताकि सूरज की मार सहें कुछ देर परदा।
बिस्तर पर गिरे पड़े मिले कितने बाल मेरे
माँ कहती रही की तेल की मालिश
आवश्यक है सिर पर,
तभी तो कविताओं ने रात दम तोड़ दिया
मैंने उठाया रेड़ी का तेल और ठोंकती रही
घण्टों भर सिर पर।
-Shwati pandey🌹🌿
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