गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'

गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'

स्वच्छन्द कवि हिंदी का अध्यापक हूँ और विद्यार्थी भी🙏

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writing quotes in hindi मृदु रम्य सुपावन-सी कविता। झर में शुचि चन्दन-सी कविता। हियँ में मनभावन-सी कविता। मरु में सरसावन-सी कविता।। रण में विकराल अनी कविता। भय में जयघोष बनी कविता। कवि के रस की जननी कविता। अति चारु लगे अपनी कविता।। सुखदायक बोधमयी कविता। जग में चिर कालजयी कविता। रघुनाथ सदा तुलसी कविता। अनुशासन से हुलसी कविता।। कुसुमाकर शुभ्र कली कविता। कलियों पर मुग्ध अली कविता। ब्रज की हर कुंज गली कविता। हरि को वृषभानु लली कविता।। घनश्याम महाछवि है कविता। तम नाशन को रवि है कविता। सुर की सरि-सी पवि है कविता। युगबोध लिए कवि है कविता।। :- गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' ©गणेश

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मृदु रम्य सुपावन-सी कविता।
झर में शुचि चन्दन-सी कविता।
हियँ में मनभावन-सी कविता।
मरु में सरसावन-सी कविता।।

                रण में विकराल अनी कविता।
                भय में जयघोष बनी कविता।
                 कवि के रस की जननी कविता।
                 अति चारु लगे अपनी कविता।।

सुखदायक बोधमयी कविता।
जग में चिर कालजयी कविता।
रघुनाथ सदा तुलसी कविता।
अनुशासन से हुलसी कविता।।

              कुसुमाकर शुभ्र कली कविता।
               कलियों पर मुग्ध अली कविता।
               ब्रज की हर कुंज गली कविता।
                हरि को वृषभानु लली कविता।।

घनश्याम महाछवि है कविता।
तम नाशन को रवि है कविता।
सुर की सरि-सी पवि है कविता।
युगबोध लिए कवि है कविता।।

:- गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'

©गणेश

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10 Love

रेल की पटरियों जैसे हम और तुम, हैं भले दूर पर, साथ चलना हमें। प्रेम के होम में सूखी समिधा-सा मैं, और घृत जैसी तुम, साथ जलना हमें। :- गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' ©गणेश

#पंक्तियाँ #कविता  रेल की पटरियों जैसे हम और तुम,
हैं भले दूर पर, साथ चलना हमें।
प्रेम के होम में सूखी समिधा-सा मैं,
और घृत जैसी तुम, साथ जलना हमें।

:- गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'

©गणेश

साँझ का अरुणिम स्वर्ण-प्रकाश, क्षितिज का विस्तृत ललित ललाट। लगे गोरोचन सदृश सुरम्य, सुशोभित सूर्यदेव विभ्राट।। अधर में देवापगा महान, धवल जल की चंचल कल्लोल। लगे ज्यौं कंचन का शुभ चूर्ण, दिया चाँदी के रस में घोल।। :- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' ©गणेश

 साँझ का अरुणिम स्वर्ण-प्रकाश,
क्षितिज का विस्तृत ललित ललाट।
लगे गोरोचन सदृश सुरम्य,
सुशोभित सूर्यदेव विभ्राट।।

अधर में देवापगा महान,
धवल जल की चंचल कल्लोल।
लगे ज्यौं कंचन का शुभ चूर्ण,
दिया चाँदी के रस में घोल।।

:- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'

©गणेश

साँझ का अरुणिम स्वर्ण-प्रकाश, क्षितिज का विस्तृत ललित ललाट। लगे गोरोचन सदृश सुरम्य, सुशोभित सूर्यदेव विभ्राट।। अधर में देवापगा महान, धवल जल की चंचल कल्लोल। लगे ज्यौं कंचन का शुभ चूर्ण, दिया चाँदी के रस में घोल।। :- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' ©गणेश

10 Love

व्योम है शान्त, यामिनी स्तब्ध। भस्म हों, जीव कलुष-प्रारब्ध।। निशाकर रुचिर रूप है वक्र। काल का ये विचित्र है चक्र।। धरा की हरी दरी है घास। रजत चादर ऊपर अति खास।। देखते तारे अपलक नैन। भव्य हो रही, मौन यह रैन।। लगें भगजोगिनि-से नक्षत्र। खोजते निज प्रियतम सर्वत्र।। कुमुद विकसित होते सानन्द। भृंग का ध्वस्त हुआ आनन्द।। कमल के किसलय होते बन्द। कुमुदिनी का फीका मकरन्द।। उल्लसित हैं, उलूक द्रुमडाल। बजाते झींगुर हर्षित गाल।। मास फागुन का है नवबिन्दु। अष्टमी का अद्भुत यह इन्दु।। गगन में ध्रुव तारा है दूर। प्रफुल्लित है, मद में अतिचूर।। सरोवर में शशि का प्रतिबिम्ब। नृत्य करता ज्यौं आधा निम्ब।। लगे है जड़ा, नील जल-दण्ड। परशुधर का हो परशु प्रचण्ड।। :- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' ©गणेश

#कविता  व्योम है शान्त, यामिनी स्तब्ध।
भस्म हों, जीव कलुष-प्रारब्ध।।
निशाकर रुचिर रूप है वक्र।
काल का ये विचित्र है चक्र।।
धरा की हरी दरी है घास।
रजत चादर ऊपर अति खास।।
देखते तारे अपलक नैन।
भव्य हो रही, मौन यह रैन।।
लगें भगजोगिनि-से नक्षत्र।
खोजते निज प्रियतम सर्वत्र।।
कुमुद विकसित होते सानन्द।
भृंग का ध्वस्त हुआ आनन्द।।
कमल के किसलय होते बन्द।
कुमुदिनी का फीका मकरन्द।।
उल्लसित हैं, उलूक द्रुमडाल।
बजाते झींगुर हर्षित गाल।।
मास फागुन का है नवबिन्दु।
अष्टमी का अद्भुत यह इन्दु।।
गगन में ध्रुव तारा है दूर।
प्रफुल्लित है, मद में अतिचूर।।
सरोवर में शशि का प्रतिबिम्ब।
नृत्य करता ज्यौं आधा निम्ब।।
लगे है जड़ा, नील जल-दण्ड।
परशुधर का हो परशु प्रचण्ड।।

:- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'

©गणेश

व्योम है शान्त, यामिनी स्तब्ध। भस्म हों, जीव कलुष-प्रारब्ध।। निशाकर रुचिर रूप है वक्र। काल का ये विचित्र है चक्र।। धरा की हरी दरी है घास। रजत चादर ऊपर अति खास।। देखते तारे अपलक नैन। भव्य हो रही, मौन यह रैन।। लगें भगजोगिनि-से नक्षत्र। खोजते निज प्रियतम सर्वत्र।। कुमुद विकसित होते सानन्द। भृंग का ध्वस्त हुआ आनन्द।। कमल के किसलय होते बन्द। कुमुदिनी का फीका मकरन्द।। उल्लसित हैं, उलूक द्रुमडाल। बजाते झींगुर हर्षित गाल।। मास फागुन का है नवबिन्दु। अष्टमी का अद्भुत यह इन्दु।। गगन में ध्रुव तारा है दूर। प्रफुल्लित है, मद में अतिचूर।। सरोवर में शशि का प्रतिबिम्ब। नृत्य करता ज्यौं आधा निम्ब।। लगे है जड़ा, नील जल-दण्ड। परशुधर का हो परशु प्रचण्ड।। :- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' ©गणेश

12 Love

हाय! डिजिटल युग ने छीनी है हमारी सादगी। भावनाएँ सुप्त हैं, रोबोट की मेधा जगी। अब धरातल छोड़कर, संसार सोशल हो गए। द्वार मन के, प्रीत के संचार सोशल हो गए। क्षण बधाई, क्षण करुणता, हाय! कैसी दिल्लगी? भावनाएँ सुप्त हैं, रोबोट की मेधा जगी। इक तरफ है जन्मदिन तो इक तरफ अर्थी चली। दूँ किसे शुभकामना या सांत्वना दुःख की भली। क्षण में सुख दर्शा दिया, ना शोक में घड़ियाँ लगी। भावनाएँ सुप्त हैं, रोबोट की मेधा जगी। :-✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' ©गणेश

#भावनाएं #डिजिटल #कविता  हाय! डिजिटल युग ने छीनी है हमारी सादगी।
भावनाएँ सुप्त हैं, रोबोट की मेधा जगी।

अब धरातल छोड़कर, संसार सोशल हो गए।
द्वार मन के, प्रीत के संचार सोशल हो गए।
क्षण बधाई, क्षण करुणता, हाय! कैसी दिल्लगी?
भावनाएँ सुप्त हैं, रोबोट की मेधा जगी।

इक तरफ है जन्मदिन तो इक तरफ अर्थी चली।
दूँ किसे शुभकामना या सांत्वना दुःख की भली।
क्षण में सुख दर्शा दिया, ना शोक में घड़ियाँ लगी।
भावनाएँ सुप्त हैं, रोबोट की मेधा जगी।

:-✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'

©गणेश

करके अपना पाषाण हृदय सत्रह दिन युद्ध लड़ा निर्भय हे भाई! अब ऐसा लगता होगा न कभी फिर भानु-उदय मेरे सत्कर्म रहे हों यदि, इस क्रूर-निशा का अंत न हो अम्बर को चीर विशिख-चपला, चीरे जो वक्ष मेरा तन हो तड़-तड़ाक टूटे मुझ पर, देखूँ न अगला दिवस कभी अथवा कड़-कड़-कड़-कड़कड़ाक, फट जाये उतनी भूमि अभी जितनी भू में इस दुष्ट-अधम-पापी की देह समा जाये या काल कुटिल-दसनों से ही, जीवन ये तुच्छ चबा जाये हे ग्रह-नक्षत्र-तारिकाओं! उल्कायें मुझ पर बरसाओ हे भूधर! निज भूखण्ड-महा धम-धम-धम-धम्म गिरा जाओ या जलनिधि बनके काल-ब्याल, कल्लोल-कराल उठाओ अब खल-विकल जलाजल कल-कल कर जल-तल के मध्य डुबाओ अब हे पवनदेव! उनचास पवन ले, घोर-भयावह रूप धरो जिस कर के शर भाई मारा, वो कर विछिन्न तत्काल करो। :- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी' (रश्मिरथी- 'आठवाँ सर्ग' से) ©गणेश

#कविता #RASHMIRATHI  करके अपना पाषाण हृदय
सत्रह दिन युद्ध लड़ा निर्भय
हे भाई! अब ऐसा लगता
होगा न कभी फिर भानु-उदय

मेरे सत्कर्म रहे हों यदि, इस क्रूर-निशा का अंत न हो
अम्बर को चीर विशिख-चपला, चीरे जो वक्ष मेरा तन हो
तड़-तड़ाक टूटे मुझ पर, देखूँ न अगला दिवस कभी
अथवा कड़-कड़-कड़-कड़कड़ाक, फट जाये उतनी भूमि अभी

जितनी भू में इस दुष्ट-अधम-पापी की देह समा जाये
या काल कुटिल-दसनों से ही, जीवन ये तुच्छ चबा जाये
हे ग्रह-नक्षत्र-तारिकाओं! उल्कायें मुझ पर बरसाओ
हे भूधर! निज भूखण्ड-महा धम-धम-धम-धम्म गिरा जाओ

या जलनिधि बनके काल-ब्याल, कल्लोल-कराल उठाओ अब
खल-विकल जलाजल कल-कल कर जल-तल के मध्य डुबाओ अब
हे पवनदेव! उनचास पवन ले, घोर-भयावह रूप धरो
जिस कर के शर भाई मारा, वो कर विछिन्न तत्काल करो।

:- ✍️ गणेश शर्मा 'विद्यार्थी'
(रश्मिरथी- 'आठवाँ सर्ग' से)

©गणेश

#RASHMIRATHI

14 Love

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