हाथों से मेरे फिसलती जा रही है ज़िन्दगी ।
ना जाने किस ओर ये ले जा रही है ज़िन्दगी ।।
चाहें दर्द हो या फिर आगे मौत ही क्यों ना हो ।
बस चल रहा हूं जिस ओर ले जा रही है ज़िन्दगी ।।
ना हक है इसपे और ना ही चलता है जोर मेरा ।
धीरे-धीरे जो मुझे निगलती जा रही है ज़िन्दगी ।।
सोचा था वो समेट लेगा सबकुछ अपनी बाहों में ।
पर उससे तो और बिखरती जा रही है ज़िन्दगी ।।
ना हिम्मत रही ना ही साहस रहा "प्रेम" अब ।
सांसों से मेरी जो बिछुड़ती जा रही है ज़िन्दगी ।।
P.k.Shayar
कभी अपनों से था हारा, कभी बेगानों से हारा ।
कभी उस भीड़ ने मारा, कभी तन्हाई ने मारा ।।
रहा ज़िंदा यहां मैं जो, थी जबतक मर्ज़ी जो उसकी ।
बड़ा ही ख़ूबसूरत ज़िन्दगी का खेल है सारा ।।
P.K.Shayar
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