"बेघर महसूस होने की खलिश का गर तजुर्बा हासिल करना है तुम्हे
किसी शाम दरख्त पर बैठे उस उदास परिंदे से उसका हाल पूछ लेना "
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" यूँ तो मौजूद थे फलक मे वे तमाम सितारे जो आज भी नूर कर रहे थे कायनात को बड़ी ही शिद्द्त से ,
मगर वो एक सितारा कि जिससे मैं गुफ्तगू किया करता था उसकी महज अब परछाई बाकी थी वहाँ "
" यूँ तो मौजूद थे फलक मे वे तमाम सितारे जो आज भी नूर कर रहे थे कायनात को बड़ी ही शिद्द्त से ,
मगर वो एक सितारा कि जिससे मैं गुफ्तगू किया करता था उसकी महज अब परछाई बाकी थी वहाँ "
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उस दरिया की रुह को महज यही एक ख्वाहिश रही मुसलसल
वो जो उसकी खामोशी को सुन सके कोई शख्स ऐसा भी तो हो
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